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सून्दर रूप है इस धरती कि
कहलाती धरती माता सबकी।
आँचल जिसका नीला आकाश,
ढँके सभिका हर्स उल्लास।
पर्बत जिसका उँचा मस्तक,
उस पर चाँद सूरज की दस्तक।
बिंदिया जैसी चमकता तारा,
जितना निहारो उतना प्यारा।
नदी-झरनो से छलकता योवन,
बिन बादल के बरसे सावन।
सतरंगी फूलों से किए श्रृंगार,
मोह लेती है हृदय के पार।
कभी धूप और कभी है छाया,
कहती अपना न कभी पराया।
कभी बादल और कभी है बरसात,
करति ये गुलिस्तां सबको हैरात।
कोयल है चिड़ियों की रानी,
कभी सुनी है इसकी वाणी।
चिड़ियों से ही सीखा उड़ना,
भँवरों के गुंजन से मधुर तराना।
सागर से गहरा है सोच की धारा,
गगन से उँचा लख्य हमारा।
सुबह से शाम बदलती ये फितरत,
अल्फ़ाजों में न बयां हो सकती ये कुदरत।
डलिमा रणबीडा
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